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इस बार / सांवर दइया
Kavita Kosh से
एक बार नहीं
कई बार हुआ है यह
कि जब-जब भी हम
अंतिम निर्णय लेने के क्षणों में होते हैं
तुम आ पहुंचे हो
आत्म-समर्पण का
कोई न कोई नया रूप लेकर !
कभी तुम्हारे मुंह में घास होती है
कभी हमें ललचाने के लिए
सुविधाओं की टाफियां
कभी गर्म गोश्त की नुमाइश
और कभी वातानुकूलित आवासों के नक्शे !
तिल-तिल कर बटोरी गई आग
तुम्हारे समर्पण का शिकार बन
फिर बिखर जाती है
आसानी से न सहेजे जा सकने वाले
पारे की तरह !
अपनी सफलताएं देख हर्षाने वालो !
आग सहेजने-बटोरने की प्रक्रिया
बंद नहीं होगी
मंद नहीं होगी
इस बार
हम तुम्हारे हर छदम को
बेनकाब करने की ठाने बैठे हैं
इतिहास ने सर्तक कर दिया है हमें
अब गलतियों की पुनरावृति हो
यह न ति इतिहास चाहता है
और न ही हम !