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इस बार कुछ ऐसा हुआ / रति सक्सेना
Kavita Kosh से
धूप ने छलांग लगा दी कुँए में
अँधेरा मुँह ढाँप सोता रहा
आजान ने गुँजा दिया आसमान
लेकिन उजाले का मुँह तक ना खुला
इस बार कुछ ऐसा हुआ
उसने धीमे से खोला दरवाजा
गुम हो गई पदचाप
सिलें होंठों से आँसू ना टपके
कोई शब्द ना गिरे आँखों से
इस बार कुछ ऐसा हुआ
सफर खो गया बीच रास्ते में
तुम हो, तुम ना हो
इसी दुविधा में भुला बैठी कि
क्या भूलना है, ऐसा क्यों हुआ?