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इसलिए लिख रहा हूँ / लाल्टू
Kavita Kosh से
कहीं कुछ अघटन हुआ सा लगता है
थमी है हवा स्थिर हैं पेड़ों के पत्ते
ठंडक नहीं है पर सिहरन है
क्या हुआ है कहाँ हुआ है
कोई गलती की मैंने क्या
मेरा ही रूप है
मेरी प्रतिमूर्ति कहीं
ध्वंस और विनाश की राह पर
कैसे रोकूँ कौन सा तर्क दूँ
जानो पहले पत्ते कह रहे हिलते हुए
पहचानो खुद को
हवा आई है अचानक और छू गई है बदन
तुम्हारे अंदर घटित हो रहीं बहुत सी बातें
अनुभव करो कहती हुई आवाजें गुज़र रही हैं
इसलिए लिख रहा हूँ
बेचैनी से उबारता खुद को
और सिहरन की चाहत
बाँटता तुम्हें।