भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इसी गली के आखिर में / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
इसी गली के
आखिर में है
एक लखौरी ईंटों का घर
किस पुरखे ने था बनवाया
दादी को भी पता नहीं
बसा रहा
अब उजड़ रहा है
इसमें इसकी खता नहीं
एक-एक कर
लडके सारे
निकल गये हैं इससे बाहर
बड़के की नौकरी बड़ी थी
उसे मिली कोठी सरकारी
पता नहीं कितने सेठों ने
उसकी है आरती उतारी
नदी-पार की
कॉलोनी में
कोठी बनी नई है सुंदर
मँझले-छुटके ने भी
देखादेखी
बाहर फ्लैट ले लिये
दादी-बाबा हैं जब तक
तब तक ही घर में
जलेंगे दिये
पीपल है आँगन में
उस पर भी
रहता है अब तो पतझर