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इसी दुनियाँ में हूँ / मोहन साहिल
Kavita Kosh से
रात के एकांत में
भूल जाता हूं
कि कमरे के बाहर है एक दुनिया
और कमरा इसी दुनिया में है
दिन भर चाबुक खाए घोड़े-सा
शाम ढले हैरान हूँ कि
अभी तक हूँ खाल सहित
मेरी टापों के निशान गवाह हैं
गाँवों-कस्बों-शहरों की
कच्ची-पक्की सड़कों पर
सपनों के सजे रथ
मैं ही खींचता रहा हूँ
पीठ पर लदा है समय
हर क्षण भारी और असहनीय
सुनता हूँ
देवता भी लालायित रहते हैं
धरती पर आने को
तो बलवती हो जाती है
जीने की चाह
खुरों से टपकता लहू
कंधों की उधड़ी खाल को
अनदेखा कर
ढोता हूँ निरंतर सपने
होंगे कभी तो सच
समय होगा मुट्ठी में
गाँवों-कस्बों-शहरों की सड़कों पर
कभी तो होगा साम्राज्य
चाबुक खाने वालों का
ख़ुश हूँ
मेरी इस हिनहिनाहट में
बहुत लोग शामिल हैं।