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ईंट, ढेले, गोलियाँ, पत्थर गुलेलें हैं / ऋषभ देव शर्मा

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ईंट, ढेले, गोलियाँ, पत्थर, गुलेलें हैं
अब जिसे भी देखिए, उस पर गुलेलें हैं

आपकी ड्योढी रही, दुत्कारती जिनको
स्पर्शवर्जित झोंपड़ी, महतर गुलेलें हैं

यह इलाक़ा छोड़कर, जाना पड़ेगा ही
टिडिडयों में शोर है, घर-घर गुलेलें हैं

बन गए मालिक उठा, तुम हाथ में हंटर
अब न कहना चौंककर, नौकर गुलेलें हैं

इस कचहरी का यही, आदेश है तुमको
खाइए, अब भाग्य में, ठोकर गुलेलें हैं

क्या पता क्या दंड दे, यह आज क़ातिल को
भीड़ पर तलवार हैं, ख़ंजर गुलेलें हैं

रोटियाँ लटकी हुई हैं बुर्ज के ऊपर
प्रश्न- ‘कैसे पाइए’ उत्तर गुलेलें हैं

है चटोरी जीभ ख़ूनी आपकी सुनिए,
इस बिमारी में उचित नश्तर गुलेलें हैं

ये निशाने के लिए, हैं सध चुके बाज़ू
दृष्टि के हर छोर पर, तत्पर गुलेलें हैं

तार आया गाँव से, यह राजधानी में
शब्द के तेवर नए, अक्षर गुलेलें हैं