भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ईमान की चिनगी / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
हाय रे ! ईमान की चिनगी !
जोहती है बाट सारी उम्र
उजले एक दिन की
एक दिन यह यों नहीं आता
कि जैसे आम आते
टूट जाते हैं न जाने
किस तरह कितने अहाते
फूस के पाँवों तले
चिकनी छतें दिखतीं मलिन-सी
चटक मैले घाघरे
घुटनों उठी धोती किसानी
कामगर चिक्कट कमीज़ों का
चिपकता ख़ून-पानी
उफन कर तस्वीर सारी
बदल देता है पुलिन की