भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ईश्वर की अपनी धरती / मोहन राणा
Kavita Kosh से
वे जगहें अनोखी बताई जाती हैं
और मैं किसी को सुनाता जैसे मैंने सुना
उसी अनोखे संसार की कहानी फिर से
और कहता तुम्हें भी देखना चाहिए ईश्वर की अपनी उस धरती को
अलेप्पी से निकले आधा दिन बीता
केट्टुवल्लम में कभी चावल और मसालों की जगह
अब ढोह रहा है नाविक मुझे जैसों को
जिन्हें किसी घर पर नहीं जाना
पर चकित होना दोपहर की छाया में उसे देख
मैं कैसे उसे भूल गया
जलगलियों के अचल हरे रंग पर मुग्ध,
सो जाना चाहता हूँ मैं नारियल की झुक की छाया में।