ईश्वर की डायरी / ललन चतुर्वेदी
मन बड़ा अलसाया रहता है सुबह-सुबह
बजाने लगते हो मेरे घर की घंटियाँ जोर-जोर से
चैन से कभी सोने भी नहीं देते
सिर के ऊपर लटका देते हो छिद्रदार घड़ा
दिन-रात टपकता रहता है बूंद-बूंद जल
कितना असहज रहता हूँ हर पल
घर के मुंडेर पर बाँध रखे हो लाउडस्पीकर
कर्णभेदी आवाज से बधिर हो चुका हूँ
पड़ोसी बनाने लगे हैं घर खाली करने का दबाव
मेरा नहीं तो कम से कम मेरे पड़ोसियों का
और उन रुग्ण मनुष्यों का रखते खयाल
हो चुका है मेरा, उनका, सबका बुरा हाल
कभी परवाह भी की तूने मेरे भूख-प्यास की
रोज रख देते हो चम्मच भर मिसरी की कटिंग्स
बिगड़ चुका है मेरे मुंह का स्वाद
बहुत खुश होता हूँ जब कभी बुलाते हो घर
कहते हो यहाँ बैठो, यहाँ ठहरो
उतरने भी नहीं पाती यात्रा की थकान
कि तुम मुझे सुना देते हो जाने का फरमान
ऐसा स्वागत नहीं देखा मैंने श्रीमान
भारी मन से लौटता हूँ फिर अपने घर
फिर वही दिनचर्या हर पल, हर प्रहर
कब बदलेंगे मेरे हालात मान्यवर?
करता हूँ अब पुष्पांजलि की बात
सह नहीं पाता शरीर फुलों का आघात
लाद देते हो इतने-इतने फूल
कि होने लगती है घुटन
ठीक से नहीं ले पाता सांस
शायद तुम्हें मेरी बातों पर न हो विश्वास
(विश्वास कभी करोगे भी नहीं)
आकर ध्यान से देखो मुझे एक बार
कभी हुआ करता था मैं प्राणवान साकार
अब पूरी तरह हो गया हूँ पाषाण
निकल चुका है मुझसे मेरा भगवान।