उगा तारा / अज्ञेय
ऊगा तारा :
मैं ने देखा नहीं कि कब बुझ गया
लाल आलोक सूर्य का। पर जब देखा, देखा यही :
कि पेड़ों-चट्टानों में उलझी हारी हुई लालिमा में द्योतित है शुक्र
अकेला तारा।
फिर आएँगे और :
कवि कह गये कि हाँ, जब सिंह चला जाता है
तब आते हैं-
नहीं! नहीं, वह मेरा शुक्र
कभी उच्छिष्ट नहीं खाता है!
मैं जो रहा अनमना-देखा नहीं हारना रवि का
याद कर रहा था वह दिन-क्षण-वह युग-सन्धि
हार जब सब कुछ, झुक कर
अन्धकार के आगे घुटने टेक दीन होने को
काँप रहा था तन-तब
तुम ने सहसा मुझे जगा कर उस हतप्रज्ञ पराजय की तन्द्रा से
देख मुझे स्थिर आँखों से (बुध-शुक्र युगल मेरे मानस का)
यही कहा था :
देखो, अब भी चमक रहा है तारा!
शुक्र अकेला तारा तब से चमक रहा है
कितने हार चुके हैं सूरज
कितनी हेरा गयीं लालियाँ कितने पत्रहीन सूखे पेड़ों में।
लो प्रणाम लो, तारे
आँखों के, प्राणों के, सूनी सन्ध्याओं के एक सहारे!
ऊगा तारा :
पेड़ों-चट्टानों में उलझी हारी हुई लालिमा में द्योतित है एक
अकेला तारा
शुक्र
हमारा।
चौंसठ योगिनी, भेड़ाघाट (जबलपुर), 3 जनवरी, 1951