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उठ समय से मोरचा ले / हरिवंशराय बच्चन

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उठ समय से मोरचा ले।

जिस धरा से यत्न युग-युग
कर उठे पूर्वज मनुज के,
हो मनुज संतान तू उस-पर पड़ा है शर्म खाले।
उठ समय से मोरचा ले।

देखता कोई नहीं है
निर्बलों की यह निशानी,
लोचनों के बीच आँसू औ’ पगों के बीच छाले!
उठ समय से मोरचा ले।

धूलि धूसर वस्त्र मानव--
देह पर फबते नहीं हैं,
देह के ही रक्त से तू देह के कपड़े रँगाले।
उठ समय से मोरचा ले।