भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उठता है कदम मंज़िल की तरफ़ / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उठता है कदम मंजिल की तरफ़ पर जाये कहाँ मालूम नहीं
है टूट चली साँसों की लड़ी थम जाये कहाँ मालूम नहीं

दिल सागर में यादों की लहर उठती है कि जैसे ज्वार उठे
मुँह फेर लिया जब चन्दा में गिर जाये कहाँ मालूम नहीं

निकले थे बहारों की खातिर जा पहुँचे पर पतझारों में
फूलों की महक चिड़ियों की चहक भरमाये कहाँ मालूम नहीं

जब हाथ पकड़ कर तुम मेरा गाते थे मुहब्बत के नग़मे
तुम दूर गये अब वह नग़में मुरझाये कहाँ मालूम नहीं

साथी न कोई मंजिल न कहीं पर आगे है लम्बा रस्ता
थक जायें कदम कब साँस रुके दम जाये कहाँ मालूम नहीं

अश्कों के उमड़ते धारों में ख़्वाबों के जजीरे डूब गये
कदमों की मेरे लगजिश मुझको अब लाये कहाँ मालूम नहीं

इक आग सुलगती है दिल में फुरकत की अकेली रातों मे
उठता है धुँआ-सा सीने से पहुंचे ये कहाँ मालूम नहीं