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उठे क़दम / शैलेन्द्र

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क्रान्ति के लिए उठे क़दम,
क्रान्ति के लिए जली मशाल !

भूख के विरुद्ध भात के लिए,
रात के विरुद्ध प्रात के लिए,
मेहनती ग़रीब ज़ात के लिए,
हम लड़ेंगे, हमने ली क़सम !

छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ
बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ,
किन्तु सेठ भर रहे हैं कोठियाँ,
लूट का यह राज हो ख़तम !

गोलियों की गन्ध में घुटी हवा,
हिन्द जेल आग में तपा तवा,
खद्दरी सफ़ेद कोढ़ की दवा,
ख़ून का स्वराज हो ख़तम !

शान्ति के लिए उठे क़दम,
शान्ति के लिए जली मशाल !

जंग चाहते हैं आज जंगख़ोर,
ताकि राज कर सकें हरामख़ोर,
पर जवान है जहान, है कठोर,
डालरों का ज़ोर है नरम !

तय है जय मजूर की, किसान की,
देश की, जहान की, अवाम की,
ख़ून से रंगे हुए निशान की,
लिख गई है मार्क्स की क़लम !

1950 में रचित