उड़ना मन मत हार सुपर्णे / हरीश भादानी
देख लिए देखे ही है तू
अपने पर मंडराते बाज,
पड़ी पड़े कड़कड़ा कभी फिर
जाने कौन दिशा से गाज,
आए-गए सभी जुड़वां थे
वैसे ही ऊभे कारीगर,
भरा हुआ तरकश है पीछे
दोनों हाथों सधी कमानी
नाद-भेदिये छोड़ेंगे ही
विश-बुझे तीर कलेजे पार
सुपर्णे उड़ना.....
रंग-पुती आंखें ही देखें
बाहर का बाहर ही बाहर,
एक अहम देखे ही फिर क्यों
इस विराट का कैसा अन्तर
बाहर के भीतर दुनिया
देखे यह जड़ भरत कभी तो,
ना-जोगे इस सूरदास की
भीतरवाली खुले कभी तो
दिखे उसे तब इस दर्पण में
मेरे मैं का क्या आकार ?
सुपर्णे.....
रचनावती एषणावाले
सुन तू समय पुरुश बोले है,
अथ-इति-अथ की उलझी आडी
निपट भाखरी में खोले हैं,
एक नहीं वे साते मिलें जब
मैं-तू बनें तभी संज्ञाएं,
जीना-मर-जीना इतना भर
आँखें झप खुल झप-खुल जाएं
लगते से सारे असार में
संसरित ये-वे सब संसार
सुपर्णे.....
नीली-नीली आँखों वाले
तेरा धरम उड़ानें भरना,
सबको साखी रख-रख तुझको
सांसों-सांसा सिरजते रहना,
जो देखे है सब हम रूपी
रम रमता सबमें रमजा तू
कलकलता बह रहा अथाही
घुल-घुलता इसमें घुल जा तू
तू इस विस्मय का अंशी है
तेरे होने का यह सार
सुपर्णे उड़ना मन मत हार ।