उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में / शकेब जलाली
उतरीं अजीब रोशनियाँ रात ख़्वाब में
क्या क्या न अक्स तैर रहे थे सराब में
[अक्स = प्रतिबिम्ब]
कब से हैं एक हर्फ़ पे नज़रें जमीं हुईं
वो पढ़ रहा हूँ जो नहीं लिक्खा किताब में
[हर्फ़ = अक्षर]
फिर तिरगी के ख़्वाब से चौंका है रास्ता
फिर रौशनी-सी दौड़ गई है सहाब में
[तीरगी = अंधेरा; सहाब = बादल]
पानी नहीं कि अपने ही चेहरे को देख लूँ
मन्ज़र ज़मीं के ढूँढता हूँ माहताब में
[मन्ज़र = नज़ारा; माहताब = चांद]
कब तक रहेगा रूह पे पैराहन-ए-बदन
कब तक हवा असीर रहेगी हुबाब में
[रूह =आत्मा; पैराहान-ए-बदन = कपडे जैसा बदन]
[असीर = असर ; हुबाब = बुलबुला]
जीने के साथ मौत का डर है लगा हुआ
ख़ुश्की दिखाई दी है समन्दर को ख़्वाब में
[ख़ुश्की = सुखापन]
एक याद है कि छीन रही है लबों से जाम
एक अक्स है कि काँप रहा है शराब में