उत्तर कांड का एक अंश / मुकुटधर पांडेय
अब तो करम के रहिस एक दिन वाकी
कब देखन पावो राम लला के झांकी
हे भाल पांच में परिन सवेच नर नारी
देहे दुबराइस राम विरह मा भारी
दोहा - सगुन होय सुन्दर सकल सवके मन आनंद।
पुर सोभा जइसे कहे, आवत रघुकुल चंद॥
महतारी मन ला लग, अब पूरिस मन काम
कोनो अव कहतेव हवे, आवत्त वन ले राम
जेवनी आंखी औ भूजा, फरके वारंवार
भरत सगुन ला जनके मन मां करे विचार
अव तो करार के रहिस एक दिन बाकी
दुख भइस सोच हिरदे मंचल राम टांकी
कइसे का कारण भइस राम नई आईन
का जान पाखंडी मोला प्रभु विसराईन
धन धन तै लक्ष्मिन तै हर अस बढ़भागी
श्रीरामचंद्र के चरन कवल अनुरागी
चिन्हिन अड़बड़ कपटी पाखंडी चोला
ते कारन अपन संग नई लेईन मोला
करनी ला मोर कभू मन माँ प्रभू धरही
तो कलप कलप के दास कभू नई तरही
जन के अवगुनला कभू चित नई लावै
वड़ दयावंत प्रभु दीन दयाल कहावै
जी मा अव मोर भरोसा एकोच आवै
झट मिलहि राम सगुन सुभ मोला जनावै
वीते करार घर मा परान रह जाही
पापी ना मोर कस देखे मां कहूं आही
दोहा
राम विरह के सिन्धु मां, भरत मगन मत होत।
विप्र रूप धर पवन सुत, पहुंचिन जइसे पोत॥