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उत्तर काण्ड / भाग 8 / रामचंद्रिका / केशवदास

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मुनि- पुत्रिके सुनि मोहिं जानहि बालमीकि द्विजाति।
सर्वथा मिथिलेश को गुरु सर्वदा शुभ भाँति।।
होहिंगे सुत द्वै सुधी पगु धारिए मम ओक।
रामचंद्र छितीश के सुत जानिहैं तिहुँ लोक।।148।।
सर्वथा गुनि शुद्ध सीतहिं लै गये मुनिराइ।
आपनी तपसान की शुभ सिद्धि सी सुख पाइ।।
पुत्र द्वै भये एक श्री कुश दूसरो लव जानि।
जातकर्महि आदि दै किय वेद भेद बखानि।।149।।
(दोहा) वेद पढ़ायो प्रथमही, धनुर्वेद सविशेष।
अस्त्र शस्त्र दीन्हे घने, दीन्हे मंत्र अशेष।।150।।

कुत्ते की नालिश

दोधक छंद

कूकर- काहु के क्रोध विरोध न देख्यो।
राम को राज तपोमय लेख्यो।।
तामहँ मैं दुख दीरघ पायो।
रामहि हों सो निवेदन आयो।।151।।
राजसभा महँ श्वान बोलायो। रामहि देखत ही सिर नायो।
राम कह्यो जो कछु दुख तेरे। श्वान निशंक कहो पुर (सामने) मेरे।।152।।
श्वान- (दोहा) निज स्वारथ ही सिद्धि द्विज, मोकों करयो प्रहार।
बिन अपराध अगाधमति, ताको कहा विचार।।153।।
ब्राह्मण- (दोहा) यह सोवत हो पंथ मैं, हौं भोजन को जात।
मैं अकुलाइ अगाधमति, याको कीन्ही घात।।154।।
श्वान- (दोहा) मेरो भायो करहु जो, रामचंद्र हित मंडि।
कीजै द्विज यहि मठपती, और दंड सब छंडि।।156।।

निशिपालिका छंद

पीत पहिराइ पट बाँधि शिर सों पटी।
बोरि अनुराग अरु जोरि बहुधा गटी (समूह)।।
पूजि परि पायँ मठु ताहि तबहीं दियो।
मत्त गजराज चढ़ि विप्र मठ को गयो।।157।।

सुंदरी छंद

बूझत लोग सभा महँ श्वानहिं।
जानत नाहिन या परिमानहिं।।
विप्रहि तैं जो दई पदवी वह।
है यह निग्रह किधौं अनुग्रह।।158।।

श्वान कथित मठपति-निंदा

दोधक छंद

श्वान- एक दिना यक पाहुन आयो।
भोजन सो बहु भाँति बनायो।।
ताहि परोसन को पितु मेरो।
बोलि लियो हित हो सब केरो।।159।।
ताहि तहाँ बहु भाँति परोसो।
केहूँ कहूँ नख माँह रह्यो सो।।
ताहि परोसि जहीं घर आयो।
रोवत हौं हँसि कंठ लगायो।।160।।

चामर छंद

मोहि मातु तप्त दूध भात भोज को दियो।
बात सों सिराइ तात छीर अंगुली छियो।।
ध्यो द्रव्यो, भव्यों, गयों अनेक नर्कवान भो।
हौं भ्रम्यो अनेक योनि औघ आनि स्वान भो।।161।।
(दोहा) वाको थोरो दोष मैं, दीन्हो दंड अगाघ।
राम चराचर-ईश तुम, क्षमियो यह अपराध।।162।।

लवणासुर वध

भुजंगप्रयात छंद

बिदा ह्वै चले राम पै शत्रुहंता।
चले साथ हाथी रथी युद्धरंता।।
चतुर्द्धा चमू चारिहू ओर गाजैं।
बजैं दुंदुभी दीह दिग्देव लाजैं।।163।।
(दोहा) केसव वासर बारहें, रघुपति केशव वीर।
लवणासुर के यमनि ज्यों, भेले यमुना तीर।।164।।

मनोरमा छंद

लवणासुर आइ गयो यमनातट।
अवलोकि हँस्यो रघुनंदन के भट।।
धनुबाण लिये निकसे रघुनंदन।
मद के गज को, सुत केहरि का जनु।।165।।

भुजंगप्रयात छंद

लवणासुर- सुन्यौ तैं नहीं जो इहाँ भूलि आयो।
बड़ो भाग मेरो बड़ो भक्ष यायो।।
शत्रुघ्न- महाराज श्रीराम हैं क्रुद्ध तोसों।
तजै देशं को, कै सजै युद्ध मोसों।।166।।
लवणासुर- वहै राम राजा दशग्रीवहंता?
सो तो बंधु मेरो सुरस्त्रीनरंता।।
हतौं तोहिं वाकौ करौं चित्त भायो।
महादेव की सौं बड़ो पक्ष पायो।।167।।
भये क्रुद्ध दोऊ दुबौ युद्धरंता।
दुबौ अस्त्र शस्त्र प्रयोगी निहंता।।
बली बिक्रमी धीर शोभा प्रकाशी।
नश्यो हर्ष दोऊ सबषैं बिनाशी।।168।।