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उत्तर काण्ड / भाग 9 / रामचंद्रिका / केशवदास

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शत्रुघ्न- (दोहा) लवणासुर शिवशूल बिन और न लागै मोहिं।
शूल लिये बिन भूलिहूँ, हौं न मारिहौं तोहिं।।169।।

मोटनक छंद

लीन्हों लवणासुर शूल जहीं। मारेउ रघुनंदन बान तहीं।।
काट्यो शिर शूल समेत गयो। शूली कर, सुःख त्रिलोक छयो।।170।।
बाजे दिवि दुदंुभि दीह तबै। आये सुर इंद्र समेत सबै।।
देव-
कीन्हों बहु विक्रम या रन मैं। माँगौ वरदान रुचै मन मैं।।171।।

प्रमाणिका छंद

शत्रुघ्न- सनाढ्यवृत्ति जो हरै। सदा समूल सो जरै।
अकालमृत्यु सो मरै। अनेक नर्क मों परै।।172।।
सनाढय जाति सर्वदा। यथा पुनीत नर्मदा।
भजैं सजैं जे संपदा। बिरुद्ध ते असंपदा।।173।।
(दोहा) मथुरामंडल मधुपुरी, केशव स्वबश बसाइ।।
देखे तब शत्रुघ्नजू, रामचंद्र के पॉइ।।174।।

रामाश्वमेघ

विश्वामित्र वसिष्ठ सौं, एक समय रघुनाथ।
आरंभो केशव करन, अश्वमेघ की गाथ।।175।।

चामर छंद

राम- मैथिली समेति तौ अनेक दान मैं दियौ।।
राजसूय आदि दै अनेक यज्ञ मैं कियौ।।
सं य-त्याग पाय ते अनेक सों हौं महा डरौं।।
और एक अश्वमेघ जानकी बिना करौ।।176।।
कश्यप- (दोहा) धर्म कर्म कछु कीजई, सफल तरुणि के साथ।
ता बिन जो कछु कीजई, निष्फल सोई नाथ।।177।।

तोटक छंद

करिए युतमृष्ण रूपरयी।
मिथिलेशसुता इक स्वर्णमयी।।
ऋषिराज सबै ऋषि बोलि लिये।
शुचि सों सब यज्ञ बिधान किये।।178।।
हयशालन ते हय छोरि लियो।
शिशिवर्ण सो केशव शोभ रयो।
श्रुति श्यामल एक विराजतु है।
अलि स्यौं सरसीरुह लाजतु है।।179।।

रूपमाला छंद

पूजि रोचन स्वच्छ अच्छत पट्ट बाँधिय भाल।
भूषि भूषन शत्रुदूषन छोड़ियौ तेहि काल।।
संग लै चतुरंग सैनहि शत्रुहंता साथ।
भाँति भाँतिन मान दै पठये सो भी रघुनाथ।।180।।
जात है जित वाजि केशव जात हैं तित लोग।
बोलि विप्रन दान दीजत यत्र तत्र सभोग।।
बेणु बीन मृदंग बाजत दुंदुभी बहु भेव।
भाँति भाँतिन होत मंगल देव से नरदेव।।181।।

सेनावर्णन

कमल छंद

राघव की चतुरंग चमू-वय को गनै केशव राज समाजनि?
सूरतुरंगन के उरझैं पग तुंग पताकन की पट साजनि।
टूटि परैं तिन तैं मुकुता घरनी उपमा बरनी कबिराजनि।
बिंदु किधौं मुखफेकन के किघौं राजसिरी स्रवै मंगललाजनि।।182।।
राघव की चतुरंग चमू चपि धूरि उठी जलहू थल छायी।
मानौ प्रताप हुतासन धूम सौं केसवदास अकासन मायीं।
मोटिकै पंच प्रभूत किधौं बिधि रैनुमयी नव रीति चलायी।
दुःख निवेदन को भव-भार कौ भूमि किंधौं सुरलोक सिधायी।।183।।

दंडक छंद

नाद पूरि धूरि पूरि तूरि वन चूरि गिरि,
शोषि शोषि जल भूरि भूरि थल गाथ की।
केसौदास आस पास ठौर ठौर राखि जन,
तिनकी संपति सब आपनेही हाथ की।
उन्नत नवाइ, नत उन्नत बनाइ भूप,
शत्रुन की जीविकाऽति मित्रन के हाथ की।
मुद्रित समुद्र सात मुद्रा निज मुद्रित कै,
आयी दिशि दिशि जीति सेना रघुनाथ की।।184।।
(दोहा) दिशि विदिशनि अवगाहि कै, सुख ही केशवदास।
बालमीकि के आश्रमहिं, गयौ तुरंग प्रकाश।।185।।

दाधक छंद

दूरहि तैं मुनि बालक धाये।
पूजित वाजि बिलोकन आये।।
भाल को नट्ट जहीं लव बाँच्यो।
बाँधि तुरंगम जयरस राँच्यो।।186।।

श्लोक

एकवीरा च कौशल्या तस्याः पुत्रो रघूदहः।
तेन रामेण मुक्तोसौ बाजि गृहृात्विमं बली।।187।।

दोधक छंद

घोर चमू चहुँ ओर तें गाजी।
कौनेहि रे यह बाँधिय बाजी।।
बोलि उठे लव मैं यह बाँध्या।
यों कहिकै धनुसायक साँध्यो।।
मारि भगाइ दिये सिगरे यौं।
मन्मथ के शर ज्ञान घने ज्यौं।।188।।

लव शत्रुघ्न युद्ध

धीर छंद

योधा भगे वीर शत्रुघ्न आये।
कोदंड लीनहें महा रोष छाये।।
ठाढ़ो तहाँ एक बालै विलोक्यो।
रोक्यौ तहीं जोर, नाराच मोक्यो (छोड़ा)।।189।।