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उत्तर दर्पण पर अंकित है / विमल राजस्थानी

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ओ प्राणों के मृदु स्पन्दन ! चेतना जनित दारूण बंधन !
क्या मुझको नहीं बताओगे, कब तक यह भेद छिपाओगे ?
मैं कौन कहाँ से आया हूँ, जाऊँगा मैं किस ठौर सखे !
यह मरघट-सा सन्नाटा तो
रह-रह कर खाये जाता है
सागर की नभचुम्बी लहरों-
का रोज बुलावा आता है
हर लहर पुछती है मुझसे मेरा परिचय, क्या बतलाऊँ ?
मुझको अपनी पहचान नहीं, यह कैसे उनको समझाऊँ

उत्तर दर्पण पर अंकित है
लेकिन दर्पण पर स्याही है
कैसी विडम्बना है, उत्तर-
देने की सख्त मनाही है
स्याही को पोंछ हटाने दो, उत्तर को बाहर लाने दो
उत्तर तो दर्पण ही खुद है, जो सकल सृष्टि सिरमौर सखे !

है कभी नहीं हमको आना
है कभी नहीं हमको जाना
आना-जाना है भ्रम केवल
यह भ्रम जन्मों का पहचाना
मरणोत्सव नाच मनाने दो, चिर मस्ती में कुछ गाने दो
प्याले-प्यालियाँ लुढ़कने दो, चलने दो मय का दौर, सखे !