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उत्तररामचरित का एक श्लोक हिन्दी में / पुरुषोत्तम अग्रवाल
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पड़ते हैं हृदय पर घन मार घन
टुकड़े-टुकड़े तब भी हुआ नहीं मन
काया चाहे अकुलाए बार बार मोहवश
लेकिन मूर्च्छित नहीं है तब भी चेतन
एक आग-सी लगती है सारी देह में
फिर भी भस्म नहीं हुआ है ये तन
कितने ही प्रहारों से भेदे मर्म विधि
नहीं होता, नहीं होता, नहीं होता नष्ट ये जीवन ।