उदास आँखें / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
31
हज़ारों ख़्वाब
माना पूरे न होंगे
दो-चार तो होंगे ही,
जीना जो चाहो
सपनों को कभी यूँ
मरने नहीं देना ।
32
दीवारें खड़ीं
बनाके घेरा हमें
कि मिलने न देंगे ,
बचे हैं पास
ये सपने सलोने
पा जाएँगे तुमको
33
उदास आँखें
नम हैं झरोखे भी
बरसों से वे बैठे,
बनके पाखी
कुछ गुनगुनाऊँ
आज मुस्कानें बाँटूँ ।
34
है चाह मेरी
वह नमी पी डालूँ
दिल की प्यास बुझे,
उड़ान भरें
वे मुक्त गगन में
सब बन्धन काटूँ
35
कुछ तो खता
तुमने भी की होगी
जाने या अनजाने,
लौटते न यूँ
बिना दुत्कारे कभी
द्वारे से कभी जोगी
36
‘मैं कहाँ रहूँगा ?’
इतना ही था पूछा
इक दिन उनसे
हँसके बोले-
‘जाना न कहीं तुम
दिल में रहो मेरे।’
37
मै मज़बूर
कि सिर झुकता है
तेरे दर पे आके,
तू ही बतादे
किस मुँह से भला
मन्दिर अब जाऊँ ।
38
जग जो रूठा
मैं क्या कर सकता
सोचो ये सभी बातें
तुम जो रूठे
मेरा यह जीवन
काँच-सा बिखरेगा ।
39
सच बोलके
बिना मेहनत ही
बैरी बहुत बने,
झूठे वचन
सुन खुश हो गए
वे ही सब दो पल में ।
40
जो भी सपने
फ़सलों -से उगे थे
निर्दय तोड़ गए ,
सिद्धार्थ जैसे
यशोधरा-सी धरा
बादल छोड़ गए ।