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उदासियाँ / अनुपम सिंह

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शाम को जीती हूँ
तमाम उदासियाँ एक साथ
चौखट के पास बैठी माँ की उदासी

वह रोज़ शाम दिये में तेल डालती है
दिया जलाती है, कुछ बुदबुदाती हुई
आँचल को पसार देती है
अनजान दुआओं के लिए
एक लम्बी साँस भीतर भरती हुई
रसोई मे चली जाती है

स्कूल से लौटे बच्चे की उदासी
जिसकी अनुपस्थिति में पिता ने
भैस के पड़वे को बेच दिया
शाम होते ही भैस चिल्लाती है
छीमियों में उतर आता है गाढ़ा दूध
बच्चा दौड़ के उसे पिसान चलाता है
अपने हिस्से की सारी रोटियाँ
खिला देना चाहता है
सूइयों से मथकर जब
पिता दूध निकालते हैं
बच्चा आंखे बंद कर
छुप जाता है माँ के पीछे

फुनगी पर बैठी उस चिड़िया की उदासी
जो हर रात चली आती है
उसके लिए प्रेम
अपने लिए थोड़ी खुशी लिए
वह हर साल एक मौसम का इन्तज़ार करती है
कि अब तिनके बीनने
और घोसला बनाने का
समय आ गया है
आज बहेलिया और उस आदमकाय को
एक साथ देख लेती है
वह आदमकाय अपने को हरी-सूखी
दोनों लकड़ियों का शौकीन बताता है

उजाड़ हो रहे पहाड़ों
सूखती नदियों कि उदासी
जिसकी मेरे पास सिर्फ कल्पनाएँ
और कविताओं में पढ़ी
अलग–अलग छवियाँ हैं
कि जिसको मेरे गाँव की
खूब हँसने वाली लड़की ने
नहीं देखा है