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उदासियाँ समेट ले किसी का अब तो मीत बन / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"

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उदासियाँ समेट ले किसी का अब तो मीत बन
लहू से अपने गुल खिला हवा के लब पे गीत बन

बुझी-बुझी है ज़िन्दगी बुझे -बुझे हैं दोस्त भी
मगर न देख खोट अब कमल-सा झूम प्रीत बन

सभी यहाँ से जाएँगे गगन को अपने छोड़ कर
मगर अभी तो चाँद बन कि चाँदनी- सी रीत बन

ये ठीक है कि ज़िन्दगी को कल कि धुन में जी मगर
कभी-कभी उदास हो कभी-कभी अतीत बन

तपन बहुत है प्यास में दहक रही है धूप-सी
बुझा दे दिल कि आग को मुहबब्तों कि शीत बन