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उदासी के बादल / शशि सहगल
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आज जब भी मन उदास होता है
तो समझ आता है
उदासी का सबब
सोचती हूँ
बचपन में भी तो कभी
सालता होगा ऐसा ही कुछ अहसास
और उस अहसास में छिपी
उदासी की चुभन
मन के खाली कुएँ से
आती ऐसी हुंकारे
जिन्हें शब्दों में बांधना असंभव।
हाँ याद है मुझे
घर में उपेक्षित होने पर
मन में छा जाते थे स्याह बादल
जो न आगे सरकते थे
और न ही लौटते थे वापिस
न ही खुल कर बरसते थे
बादलों को छू कर
महसूसा नहीं जा सकता
न ही धकेले जा पाते हैं आगे
मन में गुब्बारे से
घुमड़ते रहते होंगे भीतर
भला बादलों से धक्कामुक्की कहीं हो पाती है
तभी से आज तक
उदासी में मन
आकाश सा ढोता है भार
बादलों का।