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उद्धव-गोपी संवाद भाग १ / सूरदास

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सुनौ गोपी हरि कौ संदेस
करि समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनकौ उपदेस ॥
वै अविगत अविनासी पूरन, सब-घट रहे समाइ ।
तत्व ज्ञान बिनु मुक्ति नहीं है, बेद पुराननि गाइ ॥
सगुन रूप तजि निरगुन ध्यावहु, इस चित इक मन लाइ ।
वह उपाइ करि बिरह तरौ तुम, मिलै ब्रह्म तब आइ ॥
दुसह सँदेस सुनत माधौ को, गोपी जन बिलखानी ।
सूर बिरह की कौन चलावै, बुड़तिं मनु बिनु पानी ॥1॥

परी पुकार द्वार गृह-गृह तैं, सुनी सखी इक जोगी आयौ ।
पवन सधावन, भवन छुड़वन, रवन-रसाल, गोपाल पठायौ ॥
आसन बाँधि, परम ऊरध चित, बनत न तिनहिं कहा हित ल्यायौ ।
कनक बेलि , कामिनि ब्रजबाला, जोग अगिनि दहिबे कौं धायौ ॥
भव-भय हरन, असुर मारन हित, कारन कान्ह मधुपुरी छायौ ।
ब्रज मै जादव एकौ नाहीं, काहैं उलटौ जस बिथरायौ ॥
सुथल जु स्याम धाम मैं बैठौ, अबलनि प्रति अधिकार जनायौ ॥
सूर बिसारी प्रीति साँवरै, भली चतुरता जगत हँसायौ ॥2॥

देन आए ऊधौ मत नीकौ ।
आवहु री मिलि सुनहु सयानी, लेहु सुजस कौ टीकौ ॥
तजन कहत अंबर आभूषन, गेह नेह सुत ही कौ ।
अंग भस्म करि सीस जटा धरि,सिखवत निरगुन फीकौ ॥
मेरे जान यहै जुवतिनि कौ, देत फिरत दुख पी कौ ।
ता सराप तें भयौ स्याम तन, तउ न गहत डर जी कौ ॥
जाकी प्रकृति परी जिय जेसी, सोच न भली बुरी कौ ।
जैसैं सूर ब्याल रस चाखैं, मुख नहिं होत अमी कौ ॥3॥

प्रकृति जो जाकैं अंग परी ।
स्वान पूँछ कोउ कोटिक लागै, सूधी कहुँ न करी ॥
जैसें काग भच्छ नहिं छाँड़ै, जनमत जौन घरी ।
धौए रंग जात नहिं कैसेहुँ, ज्यौं कारी कमरी ॥
ज्यौं अहि डसत उदर नहिं पूरत, ऐसी धरनि धरी ।
सूर होइ सो होइ सोच नहिं, तैसेइ एऊ री ॥4॥

समुझि न परति तिहारो ऊधौ ।
ज्यौं त्रिदोष उपजैं जक लागत, बोलत बचन न सूधौ ॥
आपुन कौ उपचार करो अति, तब औरनि सिख देहु ।
बड़ौ रोग उपयौ है तुमकौं भवन सबारैं लेहु ।
ह्वाँ भेषज नाना बाँतिन के, अरु मधु-रिपु से बैद ।
हम कातर डरपतिं अपनै सिर, यह कलंक है खेद ॥
साँची बात छाँड़ि अलि तेरी, झूठी को अब सुनिहै ।
सूरदास मुक्ताहल भोगी, हंस ज्वारि क्यौं चुनिहै ॥5॥

ऊधौ हम आजु भईं बड़ भागी ।
जिन अँखियन तुम स्याम बिलोके, ते अँखियाँ हम लागीं ॥
जैसे सुमन बास लै आवत, पवन मधुप अनुरागी ।
अति आनंद होत है तैसें, अंग-अंग सुख रागी ॥
ज्यौं दरपन मैं दरस देखियत, दृष्टि परम रुचि लागी ।
तैसैं सूर मिले हरि हमकौं, बिरह-बिथा तन त्यागी ॥6॥

(अलि हौं) कैसैं कहौं हरि के रूप रसहिं ।
अपने तन मैं भेद बहुत बिधि, रसना जानै न नैन दसहिं ॥
जिन देखे ते आहिं बचन बिनु, जिनहिं बचन दरसन न तिसहिं ।
बिनु बानी ये उमँगि प्रेम जल, सुमिरि-सुमिरि वा रूप जसहिं ॥
बार-बार पछितात यहै कहि, कहा करौं जो बिधि न बसहिं ।
सूर सकल अँगनि की गति, क्यौं समुझावैं छपद पसुहिं ॥7॥

हम तौ सब बातनि सचु पायौ ।
गोद खिलाइ पिवाइ देह पय, पुनि पालनै झुलायौ ॥
देखति रही फनिग की मनि ज्यौं, गुरुजन ज्यौं न भुलायौ ।
अब नहिं समुजति कौन पाप तै, बिधना सो उलटायौ ॥
बिनु देखैं पल-पल नहिं छन-छन, ये ही चित ही चायौ ।
अबहिं कठोर भए ब्रजपति-सुत, रोवत मुँह न धुवायौ ॥
तब हम दूध दही के कारन, घर घर बहुत खिझायौ ।
सो सब सूर प्रगट ही लाग्यौ , योगऽरु ज्ञान पठायौ ॥8॥

मधुकर कहिऐ काहि सुनाइ ।
हरि बिछुरत हम जिते सहे दुख, जिते बिरह के धाइ ॥
बरु माधौ मधुबन ही रहते, कत जसुदा कैं आए ।
कत प्रभु गोप-बेष ब्रज धरि कै, कत ये सुख उपजाए ॥
कत गिरि धर्‌यौ, इन्द्र मद मेट्यौ, कत बन रास बनाए ।
अब कहा निठुर भए अबलनि कौं, लिखि लिखि जोग पठाए ॥
तुम परबीन सबे जानत हौ, तातैं यह कहि आई ।
अपनी को चालै सुनि सूरज, पिता जननि बिसराई ॥9॥