उद्बोधन / भगवान स्वरूप कटियार
जहाँ मेरा इंतज़ार हो रहा है
वहाँ मैं पहुँच नहीं पा रहा हूँ
दोस्तों की फैली हुई बाँहें
और बढ़े हुए हाथ
मेरा इंतज़ार कर रहे हैं ।
मेरी उम्र का पल-पल
रेत की तरह गिर रहा है
रैहान मुझे बुला रहा है
ऋतु, अनुराग, निधि, अरशद
शाश्वत, दिव्या और मेरी प्रिय आशा
और मेरे दोस्तों की इतनी बड़ी दुनिया
मैं किस-किस के नाम लूँ
सब मेरा इंतज़ार कर रहे हैं
पर मैं पहुँच नही पा रहा हूँ
मेरी साँसें जबाब दे रही हैं ।
पर याद रखना दोस्तो
मौत, वक़्त की अदालत का
आख़िरी फ़ैसला नहीं है
ज़िन्दगी, मौत से कभी नहीं हारती ।
मेरे दोस्त तो मेरी ताक़त रहे हैं
मैं हमेशा कहता रहा हूं
कि दोस्ती से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता
और न ही होता है
दोस्ती से बड़ा कोई धर्म
मैं तो यहाँ तक कहता हूँ
की दोस्ती से बड़ी कोई
विचारधारा भी नहीं होती
जैसे चूल्हे में जलती आग से बड़ी
कोई रोशनी नहीं होती ।
मेरी गुजारिश है
कि उलझे हुए सवालों से टकराते हुए
एक बेहतर इंसानी दुनिया बनाने क लिए
मेरी यादों के साथ
संघर्ष का यह कारवाँ चलता रहे
मंज़िल के आख़िरी पड़ाव तक ।