उद्यान में देवदारु के नीचे / अलेक्सान्दर कुशनेर
ईश्वर उस भद्दे गिरजाघर में नहीं
न ही उकेरी गई उन देव-प्रतिमाओं में।
वह वहाँ है जहाँ तुमने उसके बारे में सोचा
मनपसंद कविताओं में है वह,
उससे भी अधिक, अस्पताल के बार्ड में
रोगियों के पास रुई-पट्टी लिये।
उसे शायद अच्छा लगता हो आज के जैसा दिन
उन पवित्र उत्सवों की तुलना में,
आखिर वह भी तो बदलता रहा है हमारे साथ।
ईश्वर वह है जो हम सोचते हैं उसके बारे में
जिसे ले कर हम उसके पास आये
जिसके बारे में हमने उससे प्रश्न किये।
वह हमें उटकाता है बर्फ में
सॅंभाले रखता है आग के ऊपर
शायद वह हमारी दयालुता में जीता है
और मरता है हमारी दुष्टताओं में।
एक बुढ़िया आई है इस भद्दे गिरजाघर में,
खड़ी है उसके सामने नतमस्तक।
अच्छे विचार आयें उसे और लौट जाय घर!
मुझे कविताएँ अच्छी लगें और वे हृदय में घर कर लें,
सम्मोहित कर दे मुझे पत्तियों की फड़फड़ाहट,
पल दो पल की शांति मिले!
अंधकार में जो डरावनी तस्वीर बन आई है
दो-तीन लकीरें में भी बना लूँ उसमें
शायद, ईश्वर उन्हें महसूस करे
जिस तरह महसूस करता है वह स्नेह और आर्द्रता।