उनकी भाषा का अनिवार्य शब्द / अशोक कुमार पाण्डेय
आप दिल्ली में रहते हैं शोपियाँ में नहीं
घर छोड़ा तो बेंगलोर गए नागालैंड नहीं, मणिपुर नहीं
इतनी सुरक्षित कालोनी में घर है कि कुत्ते को भीतर आना हो तो भी नाम लिखाना होगा
क्या आश्चर्य कि इतना गर्व आपको सेनाओं पर ?
क्या आश्चर्य कि सिपाही को गाली और एस पी को सलाम है आपके होठों पर?
किसे आश्चर्य हो सकता है आपकी अनन्य देशभक्ति पर
आपका है देश, हरे-भरे खेत-खलिहान, नदियाँ, पहाड़, सड़कें, पुल
और सुखों से बजबजाता बाज़ार तो है ही खैर आपके खातिर.
रामलीला मैदान आपका प्रगति मैदान आपका
गाँधी समाधि आपकी आपके चौक सारे आपके नख्खास
क्या आश्चर्य अदम्य आस्था आपकी ईश्वर पर
धर्म से लगाव ऐसा और मनुष्यता पर इतना दृढ़ विश्वास!
क्यों बूझे आप अबूझमाड़ को?
क्यों जाने किसी अंदराबी को?
कौन है यह इरोम शर्मिला?
तीस सालों से गुमशुदा पति का इंतज़ार करती शरीफ़ा क्यों शामिल हो आपकी चिंताओं में?
क्यों न कहें आप कि बंदूक नहीं होती किसी समस्या का हल?
आपकी ज़िन्दगी में कहाँ रही कभी बंदूक बचपन के खिलौनों के बाद?
उन लोगों से आपको क्या
जिनकी आँखों में खौफ़ बनी बसी हुई बंदूक
जिनके जीवन का सारा रस लूट गयी बंदूक
जिनके सीने को रोज़ रौंदते बर्बर फौज़ी बूट
जिनकी देह रौंद मनाते जश्न रोज़ रंगरूट
उन लोगों की बात समझना मुश्किल है. वे जो इस देश की जनसंख्या के आंकड़े में शामिल हैं और जनता नहीं है इस देश की. वे जिनकी धरती अभिन्न हिस्सा है इस देश की और जिनके वज़ूद बोझ इस देश पर. वे आपकी जबान में नहीं बोलते. वे आपके कदमों से नहीं चलते. जिनकी बीबियाँ डोलियों में बलात्कार की शिकार हुईं और किसी बेहमई में गोली चलाने भर की हिम्मत न जुटा सकीं. जिनके जंगल पाट दिए गए कंकरीट से और जिनकी नदियाँ बेच दी गयीं रातोरात. वे नहीं बोल सकते आपकी ही भाषा में. उनकी भाषा में नहीं होता इतना संस्कार.
उनकी भाषा में बंदूक एक अनिवार्य शब्द बन जाता है
जैसे आपकी भाषा में आतंकवादी.