भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उनमें मौजूद हूँ मैं / जयप्रकाश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
ख़ाली सब आसमान, ख़ाली-सी ज़मीं की तरह।
आप के शहर में हूँ कब से अजनबी की तरह।
दिन गुज़रते ही रोज़ शाम ठहर जाती है,
उदास, सूख चुकी आँखों की नमी की तरह।
लोग लिखते हैं जिसे, पढ़ते हैं तरन्नुम से,
उनमें मौजूद हूँ मैं अपने पुरयक़ीं की तरह।
ज़िन्दा है मगर ऐसी ज़िन्दगी का क्या होना,
देह में जैसे अपने प्राण की कमी की तरह।
वक़्त हैरान है, फ़ितरत से, मेरी शोहरत से,
ख़ुद से बेख़बर मैं अच्छे आदमी की तरह।