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उनींदा / माया एंजलो
Kavita Kosh से
कुछ ऐसी रातें होती हैं जब
नींद लजा कर
दूर चली जाती है और उपेक्षा कर देती है ।
और जो भी छल-बल
अपनाती हूँ उसकी
सेवाएँ पाने को
व्यर्थ हैं घायल आहत गुमान की तरह,
और बहुत ही पीड़ादायक हैं ।
सबक
मैं फिर से मरती रहती हूँ ।
नसें निढाल होकर खुल जाती हैं
सोये हुए बच्चों की
नन्हीं मुट्ठियों की तरह ।
पुरानी समाधियों की यादें ,
सड़ता माँस और कीड़े
मुझे यक़ीन नहीं दिला पाते
चुनौती के लिए कितने ही बरस
और उदासीन शिकस्त बस गए गहराई में
मेरे चेहरे की झुर्रियों में ।
मेरी आँखों को धुँधला कर देते हैं वे, फिर भी
मैं मरती रहती हूँ,
क्योंकि मुझे ज़िन्दगी प्यारी है ।