भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उन्नीस सौ सत्रह, सात नवम्बर / नाज़िम हिक़मत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मर रहा है रूसी साम्राज्य
शीत प्रसाद में सुनाई नहीं देती लहँगों की रेशमी सरसराहट
और न ही ज़ार की ईस्टर की प्रार्थनाएँ,
न ही साइबेरिया की ओर जाती सड़कों पर ज़ंजीरों का क्रन्दन…

मर रहा है, रूसी साम्राज्य मर रहा है…

अब और नहीं भीगेंगी पोमेचिकों की पीली मूँछें
वोदका के गिलासों में
भूख से मरते मुझीकों की ताम्बई दाढ़ियाँ
अब और नहीं जलेंगी
काली मिट्टी पर चुल्लू भर रक्त की तरह

और आज
मौत
जो बढ़ रही है रूसी साम्राज्य की ओर
नहीं है उसका पीला सिर
पाँचा नहीं बल्कि
उसके हाथों में है एक ओजस्वी लाल झण्डा
और उसके गालों पर युवापन की रक्ताभा

उन्नीस सौ सत्रह
सात नवम्बर
अपने धीर-मन्द्र स्वर में
लेनिन ने कहा :
“कल बहुत जल्दी होता है और कल बहुत देर हो चुकी रहेगी,
समय है आज !”

मोर्चे से आते हुए सैनिक ने
कहा, “आज !”
खन्दक जिसने मार डाला था भूख से मौत को, उसने कहा, “आज”
अपनी भारी, इस्पाती काली
तोपों के साथ अवरोरा पोत ने
कहा “आज !”
कहा “आज !”

और यूँ दर्ज की बोल्शेविकों ने इतिहास में
इतिहास के सर्वाधिक गम्भीर मोड़-बिन्दु की तारीख़ :
उन्नीस सौ सत्रह
सात नवम्बर!