उन्नीसवां अध्याय - 2 / प्रवीन अग्रहरि
रणभूमि सजा है स्वप्नों में
गांडीव उठाते धरते हैं
है समय शेष फिर भी अधीर
मन में व्याकुलता भरते हैं।
है जीवन का यह समर किन्तु
निस्त्राण स्वयं को पाते हैं
बज रही दुदुम्भि प्रश्नों की
वैराग्य राग हम गाते हैं।
हम ज्ञेय भ्रान्ति को पोषित करते संभावी यथार्थ हैं
हम सब चिंतित पार्थ हैं।
मन की चंचलता बढ़ी हुई
है प्रत्यंचा भी चढ़ी हुई
शंकाएँ हमारी विकसित हैं
और प्रश्नी सेना खड़ी हुई।
हम दिशाभ्रमित हैं, खोए हैं
हम चक्षुहीन हैं, सोए हैं
रण-भू की कर्कश माटी पर
हम ग्लानि अश्रु को बोए हैं।
हम बोधहीन के शीर्ष बिन्दु, हम दम्भ पूर्ण युक्तार्थ हैं
हम सब चिंतित पार्थ हैं।
हे कृष्ण सुनो विह्वल पुकार
हमको दे दो भगवत का सार
हम कर्म समझने को तत्पर
दर्शन दे दो हे निराकार।
हम विवश उपेक्षित लज्जित हैं
चैतन्य खोज को सज्जित हैं
परिणाम समर का जो भी हो
हम पराजयी हैं उज्जित हैं।
हम मोह पाश में फँसे हुए सृष्टि के पाँच पदार्थ हैं
हम सब चिंतित पार्थ हैं।