उन्हें सवाल ही लगता है मेरा रोना भी ।
अजब सज़ा है जहाँ में ग़रीब होना भी ।
ये रात भी है ओढ़ना-बिछौना भी,
इस एक रात में है जागना भी सोना भी ।
अजीब शहर है कि घर भी रास्तों की तरह,
कैसा नसीब है रातों को छुप के रोना भी ।
खुले में सोएँगे मोतिया के फूलों से,
सजा लो ज़ुल्फ़ बसा लो ज़रा बिछौना भी ।
अज़ीज़ कैसी यह सौदागरों की बस्ती है,
गराँ है दिल से यहाँ काठ का खिलौना भी।