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उपजीवन / पूनम भार्गव 'ज़ाकिर'
Kavita Kosh से
प्रस्फुटन
कहीं भी
कभी भी
हो सकता है
जीव कहीं भी
पनप सकता है
उपजीवी जीवन
नहीं देखता कि
वो जियेगा कैसे
उसे भरोसा है
उस पर
किसी की कृपादृष्टि
पड़ ही जायेगी
वो जी ही जायेगा
जैसे पलते हैं
कर्महीन योद्धा
दूसरों के कंधे पर रख
बन्दूक
नन्ही-सी जानों
प्यारी-सी पौधौं
अरमानों की
तुम
उग तो गए हो
रेत कणों के सहारे
ज़ंग लगे उन तालों में
जिनकी चाबियाँ
कभी नहीं खोलेंगी
विकास के राज़
पनप रहे हैं
वो भी
सँस्कृति के नाम पर
और जी रहे हैं
परजीवी की तरह
तुमसे इल्तिजा है
थोड़ी-सी ज़मीन
रख लो अपने नीचे
जमा लो जड़ें
आस-पास
जान लो
ईमानदार न हो
सोच
ना हो पहचान
मिट्टी की सुगन्ध से
तो
पल नहीं सकता
फल नहीं सकता
कोई भी बीज
काई के सहारे!