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उफनी नदी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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17
धरा का बल
नदियाँ कल-कल
गाते झरने ।
18
उफनी नदी
ढोरों -सी डकारती
उगले फेन।
19
पाप से भरीं
सह न पाईं बोझ
नदियाँ मरीं।
20
आँखों में बचा
नदियों में सूखा है
सारा ही पानी।
21
सँजोई नदी
जैसे ही सागर ने
उमड़ा ज्वार
22
तुम हो नदी
दुख सहती चलो
बहती चलो।
23
उदास तट
बिखरी हैं अलकें
सूखी धाराएँ।
24
रँभाती नदी
आवारा ढोरों-जैसी
बस्तियाँ डूबीं।
25
खेत विलीन
डूबे छान-छ्प्पर
उम्मीद डूबी
26
उड़ती धूल
सूख गई धाराएँ
प्यासे हैं कूल।
27
तरसे पाखी
चंचुभर जल भी
हुआ दुर्लभ ।
28
गिरि अंक से
बूँद-बूँद निचोड़ी
खेतों को बाँटे।
29
बहा निर्मल
आत्मीय अनुराग
बन निर्झर।
30
मन के तट
हो गए मधुमय
सिंचित रोम।
31
उमड़ा नेह
ब्रह्मरंध्र सिंचित
मैं मुक्तिकामी।
32
नदी की देह
छूते रहे किनारे
सगे न हुए।