उबरेंगे पतझड़ से लोग / विजय कुमार देव
सब तरफ बदहवास, बदहवास
बेतहाशा दौड़ :
शिशु अपनी जिज्ञासायों में बदहवास
माँ घर की उलझनों में
पिता गृहस्थी चलाने की दिक्कतों में
नेता कुर्सी-दौड़ में बदहवास
खिलाड़ी कीर्तिमान की दुनिया में
विद्यार्थी बस्ता ढ़ोने में
शिक्षक अपनी दुनिया में
धर्माचार्य मठों के चक्कर में
विद्वान प्रसिद्धि के लिए
परीक्षार्थी बदहवास
नकलची बदहवास :
सब बदहवास आँखे
देख रही है -दुनिया की गति में
शामिल अपने पाँवों की नाप :
मोहल्ला,क़स्बा,नगर,राजधानी
पूरा देश एक साथ बदहवास
पूरा देश बदहवास
पूरे लोग बदहवास
देश में दौड़
दौड़ में लोग
लोगों के दिमाग में दौड़
कहाँ जायेंगे सब
पृथ्वी की परिधि नहीं बढ़ेगी |
सब टकरा रहें हैं
टकराहट से बदहवास :
लौटेंगे शायद फिर
पृथ्वी की धुरी में
आरती की तन्मयता लौटेगी
लौटेगी नदी एक दिन
लौटेंगे लोग चौपाल पर
बौन्साई वटवृक्ष निकलेगा गमले से बाहर
धरती की धुरी पर जमाएगा जड़ें ,
कहानी लौटेगी,कम्प्यूटर-स्क्रीन से लोगों की जुबान पर
लौटेगी कविता की धुन लोक गायकों के कंठ में :
सब बदहवास : लौटेंगे एक दिन
आदमकद इंसान की तरह
परिधि से केंद्र की ओर
कंक्रीट जंगल से हरे भरे वनस्पति जगत में
पूरे हर्षोल्लास से
उबरेंगे पतझड़ से लोग |