उभयचर-10 / गीत चतुर्वेदी
जो सहज है वही प्रकृति है जो अहसज वह ज्ञान
अच्छे-बुरे का ज्ञान ही हमारे जीवन का विष है
ईश्वर ने मेरे सबसे पुराने पुरखों को इसी दोष का दंड ही तो दिया था
मैं दंड से डरता हूं इस भेद को भूल चाने की चाह से भरा
भूलना ही सबसे प्राकृतिक क्रिया है याद रखने को कितने करतब करने पड़ते हैं
स्मृति का एक खंड इस काम के लिए सुरक्षित कि धीरे-धीरे सब कुछ भूल जाना है सज़ाएं ही क्यों मिलती हैं भूलने पर लेकिन
मैं हमेशा तुरपाइयों के पुल पर चलता रहा वस्त्रों के अंतरंग में प्रविष्ट होने का अरमानी
और ताउम्र खुले दरवाज़ों पर दस्तक देता रहा जिन मकानों को लोग छोडऩा नहीं चाहते थे लेकिन जान बचाने के लिए जो
बिना ताला लगाए भागे थे और फिर वहां कोई रहने नहीं आया
हम घर पहुंचने का जितना इंतज़ार करते हैं उससे कहीं ज़्यादा घर हमारा इंतज़ार करता है
तभी तो हमारी जगह कोई और आकर रहने लगे तो उसे अपनी उदास आवाज़ों से डराता है
दीवार और दरवाज़े और खिड़कियों के पल्लों में क्या बातें होती हैं कभी सुना है किसी ने
मेरे कुरते पर कलफ़ की तरह लगी हैं जीवन की दुर्घटनाएं
शर्ट का जो हिस्सा पैंट के भीतर रहता है उसके पास भी सुनाने को कई कहानियां हैं
मैं चेलो हूं वायलिन की भीड़ में अकेला रखा गया है मुझे
इसीलिए जब भी बोलता हूं बहुत गहरे से भर्रा कर बोलता हूं और संकोच में अपनी गूंज फैलने नहीं देता
बाख़ से लेकर विवाल्दी तक मोत्सार्ट से फिलिप ग्लास तक
जब भी मुझ पर उंगली रखी जाती है लगता है कोई छोटा बच्चा मेरे कपड़े खींचकर अपनी आवाज़ सुनाना चाहता है मुझे
नियति पर तो ख़ैर मुझे भी नहीं नीयत पर लेकिन सब ही को है संदेह
मैं जल में रहता हूं तो दुख की पूर्णता में और थल पर भी मैं वैसा ही हूं
रात को जिन पतंगों की आवाज़ आती है वे एक साथ मुझे दिलासा दे रहे होते हैं दरअसल