उभयचर-21 / गीत चतुर्वेदी
मैं किसी प्रतिस्पर्धा में रहा नहीं इसीलिए सबसे आगे रहा
अकेला भी क्योंकि उन दिशाओं की ओर जाना नितांत अकेला होना था
मेरी भाषा में उत्साह का अर्थ हमेशा निद्रानिमग्न मुस्कान था
जागृत गतिशील हड़बड़ाहट को मैं उत्साह के नाम से कभी पहचान न पाया
मेरे सीने पर हाथ रख सांस को महसूस करने में धर्मभ्रष्ट होता था उनका
सो दूर से ही देखकर उन्होंने घोषणा कर दी
यह एक मुस्कराती लाश है जिसमें सोई हुई हड़बड़ी तक नहीं
भुरभुरी मिट्टी के नीचे दब जाने की या महीन जल की धारा में बह जाने की
रह जाने की इस रहनशील दुनिया में रहना है तो सहना है इसीलिए रहन-सहन जैसा युग्म बना
जहां जीने के लिए उत्साह ज़रूरी माना जाता असल में ज़रूरी क्या था
यह वे भी न बता पाए जिन्हें किताबों के ब्लर्ब में सबसे ज़रूरी कहा गया
जो कहा गया था उसमें यक़ीन किया भी नहीं मैंने मसलन बुज़ुर्गों का सम्मान करो
बार-बार कही गई यह बात
बात मानो उनकी जो तुमसे प्रेम करते हैं
गोकि यह शर्त थी न मानने पर जिसे प्रेम ख़त्म हो जाता
तो हो जाए वह प्रेम ही क्या जो तुला हो अपनी बात मनवाने पर
मैं मानता न मानता पर सब मुझे हतोत्साहित लाश मान चुके थे
मुझे गाड़ा गया तब भी मेरे चेहरे पर उत्साह थिरक रहा था
जब मैं नींद में होता हूं अपना चेहरा देख सकता हूं