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उभरूँगा फिर / सुरेश ऋतुपर्ण
Kavita Kosh से
मैं फिर चहकूँगा
चिड़ियों की तरह
बाहें खोल दौडूँगा
झरते कोहरे के बीच नाचूँगा
थक कर चूर हो जाने तक
विश्वास हूँ
टूटूँगा नहीं ।
यों संदर्भों के
काट दिए जाने से क्या होता है
अर्थ उनका
मुझमें ही तो जीता है
कि मैं
हर टूटन के बाद
रूपायित कर लेता हूँ
अपने को फिर से
मैं तो लहर हूँ
चट्टानों से टकरा
छार-छार हो
रेत पर बिखर
विलीन हो जाना
अंत नहीं
आरंभ है मेरी यात्रा का
कि मेरा हर समर्पण
मुझे सार्थक कर जाता है ।
मैं फिर दहकूँगा
ढलते सूरज की तरह
और छोडूँगा अपनी रक्ताभा
लहरों पर
पेड़ों की शाखों पर
चट्टानों से निकल
बहते झरनों पर
कि मेरी आत्मा का संगीत
घर लौटते पांखियों की मरमराहट में
विसर्जित हो
तिरोभूत हो जाएगा
काले पड़ते जल की
अथाह गहराइयों में
फिर से उतरने के लिए