भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उमड़-उमड़ घन घिरल / जयराम सिंह
Kavita Kosh से
उमड़-उमड़ घन घिरल अकसवा,
चमकल अँखिया के कोर रे,
राधा के फोर देलक गगरिया,
नटखट नवल किसोर रे।
(1)
देस-विदेस से अइलै बदरा,
विरहिन के छितराल केस हल,
न´ ओकर अँखिया में कजरा,
ओकर दसा देख घन काने टपकै टप-टप लोर रे।
राधा के फोर ... किसोर रे॥
(2)
उज्जर बग-बग उड़ल बगुलवा,
मानों इंदर इंदरानी के खातिर,
मँगा रहल है फुलवा,
या चाँदी के हँसुली छीन के भागल हावा चोर रे।
राधा के फोर ... किशोर रे॥
(3)
पूरब ओर उगल पनसोखा,
ओकरे देख के मीत लगैलूं हल,
जेकरा से देलक धोखा,
सुधि के बादर घिरल आँख में बोथे अंचरा के छोरे रे।
राधा के फोर देलक ... नटखट नवल किसोर रे॥