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उम्मीद / देवमणि पांडेय
Kavita Kosh से
बचपन में दादी के
झुर्रीदार चेहरे को
अपनी कोमल हथेलियों से छूकर
मैंने हमेशा यही महसूस किया-
कि ज़िंदगी जब
कांटों के बीच खड़ी होती है
उस वक़्त उसकी उम्र
बहुत बड़ी होती है
बचपन में मुझे भी जीवन
बहुत भला लगता था
आँखों में हमेशा
इंद्रधनुष खिला रहता था
मगर अब मेरी हथेलियाँ
उतनी मुलायम नहीं रहीं
ज़िंदगी के नाम पर आँखों में
एक अजीब सी दहशत समाई है
लगता है, दादी के चहरे की झुर्रियाँ
मेरी हथेलियों पर उतर आई हैं
एक दिन जब तपती हुई धूप में
गुलमोहर खिलखिलाया
तो मेरे मन में विश्वास का
एक अंकुर लहलहाया-
कि ज़िंदगी अब भी
उतनी बड़ी हो सकती है
और दुखों की तपती हुई धूप में
गुलमोहर की तरह हेँसते हुए
खड़ी हो सकती है