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उम्मीदों का भात / दीप्ति पाण्डेय
Kavita Kosh से
थकान के चूल्हे पर चढ़ी है
देह की हाँडी
खदबदा रहा है उम्मीदों का भात
सपने सफ़ेद झाग की तरह अंगारों पर गिरते हैं
छन्न छन्न की आवाज़ होती है
मन बेचैन मक्खी सा भिनभिना रहा है
हाथ काँप रहे हैं
सपने जल रहे हैं
भात, अभी सीजा नहीं