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उलझते रिश्ते / सीमा संगसार
Kavita Kosh से
अंगना बुहारती स्त्रियाँ
अपनी सारी वेदनाओं को
उड़ा देती हैं घर के धूल के साथ!
उनींदी रातों की कहानी
चिपक जाया करती हैं
कमरे की दीवारों पर-
बासी कमरे से आती बू
उदास चेहरे पर
जबरन मुस्कान थोपते हुए
वह सहजता से मिटा देना चाहती है
अपने सारे निशान
बिखरे हुए तिनके की तरह-
बेतरतीब जुल्फों को
करीने से काढ़ती हुई
आड़ी तिरछी बिन्दी को
माथे पर सुनिश्चित कर
आश्वस्त करती है
अपना पता ठिकाना!
झाड़ू कोई उपकरण नहीं
बस एक समाधान है
उलझते बिगड़ते रिश्तों को
तहजीब से रखने की