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उलझन / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
मैंने जब देखा अब इन हाथों से अपने
मैं भी कुछ कर सकता हूँ फ़ौरन अपनाया
सफल जनों का ढंग, सुखी का सुख अपनाया
फिर भी न तो फल मिला, न सुख, सांस के तप ने
मुझे तपा डाला । मेरा फ़र्मा ही छपने
में मुड़ गया, भँजाई में उसको अलगाया
जिल्दसाज ने और काम अपना सलटाया
जल्दी-जल्दी, नहीं दिया पुस्तक में खपने ।
और क्या करूँ, हाथों को देखा करता हूँ
अपने जब तब मन अकसर सोचा करता है,
कर-कराव में कहाँ कौन सी कसर रह गई
ये ख़ाली हैं। मैं ठण्डी सांसें भरता हूँ
हूँ हूँ केवल सुनता हूँ, साहस डरता है,
मुझसे एकाकी हूँ हूँ यह कथा कह गई ।