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उलझन / शर्मिष्ठा पाण्डेय
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हिसाब औ किताबत में आज भी कच्चे हैं हम
इसलिए बड़े न हो पाये जी, बच्चे हैं हम
जिसने भी चाहा लगाया निशाना ऊँगली पे
गली में लुढ़कते,रंगीन वो कंचे हैं हम
हर कोई है सिखा रहा शऊर चलने का
कोशिश में उठने की हर बार ही गिरते हैं हम
अपनी फक्कड़ मिजाजी खोखा ही बस खोखा है
बरसों से खाए पड़े जंग,तमंचे हैं हम
अब तो तारीख भी भुला चली है,कौम शपा
हिंदे-जुगराफिया के भटके वो नक़्शे हैं हम
इन्किलाबों ने मिटा दिया फर्क दुश्मन का
जिल्लत ए नफ्स सही जिन्दा अगरचे हैं हम
जड़ों पे चोट है खायी संभाले शाखें क्या
जो हैं बहार से मुरझाये वो गुंचे हैं हम
जुल्फ की गिरह से कह दे के,खुद एतमाद बने
आशिक झूठे सही इंसान पर सच्चे हैं हम