भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उलझन / शिवप्रसाद जोशी
Kavita Kosh से
आवाज़ लगाता था खुले गले से
बच्चा सड़क पर : यथार्थ ! यथार्थ !
सुना तो मैं भी लगा देखने
दौड़कर निकल आया उसका दोस्त ।
इस नाम का कोई दोस्त तो नहीं मेरा
पर क्या पुकारने से मिल जाएगा
मुझे अपना यथार्थ ?
अगर मिला और मेरा न हुआ
तो फिर किसका होगा ?
अगर न कर पाया शिनाख़्त
फिर रहेगा या गुम हो जाएगा यथार्थ ?