भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उषा गीत / अनामिका सिंह 'अना'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

असित निशा चल दी समेटकर, तम की चादर काली।
लो पूरब में हँसा दिवाकर, लिये भोर की लाली॥

खग वृन्दों ने पंख पसारे, नापा गगन परिधि को।
विहंस शरण दी नभ वितान ने, धरती के प्रतिनिधि को॥
शक्ति अपरिमित ले डैनों में, थाह गगन की पा ली।
लो पूरब में हँसा दिवाकर, लिये भोर की लाली॥

नत शाखों प्रति पुष्प मंजरी, पर आयी तरुणाई.
भ्रमर विहंस लो करने आये, कलिका की पहुनाई॥
देख झूमते शाख पर्ण को, स्मित आनन है माली।
लो पूरब में हँसा दिवाकर, लिये भोर की लाली॥

लिये फावड़े और कुदालें, चले खेतिहर घर से।
दो-दो गज के डग भरते हैं, बाँधे साफा सर से॥
बाट जोहता शुष्क खेत कल, बूँद स्वेद की डाली।
लो पूरब में हँसा दिवाकर, लिये भोर की लाली॥

पुष्ट पाल्य खेलें घर आँगन, कज्जल लगे ढिठौने।
बजे किंकणी दुग्ध पी रहे, पूज्य सुरभि के छौने॥
उषा जन्म की ब्रह्म बजाते, सकल सृष्टि में थाली।
लो पूरब में हँसा दिवाकर, लिये भोर की लाली॥