उस की बात / भारतेन्दु प्रताप सिंह
उसकी हँसी, सुनाई नहीं देती
उसकी मुस्कराहट, दिखाई नहीं देती
फिर भी, कराहते आदमी को
सड़क पर घिसटते हुए,
भीख मांगते देखकर
वह मुस्कराता ज़रूर है।
किसी दुर्घटना में मरे,
जवान-बांकुरे की लाश पर
रोते लोगों को देखकर
उसे हंसी आने लगती है,
और जहाँ कहीं भी
पागल भीड़, उन्माद में
इन्सानियत की बोटी-बोटी
नोचती है-वह ठहाके पर ठहाके,
लगता है, जो फिर भी
किसी को नहीं सुनाई देते
किसी को नहीं सुनाई देते।
वह ठहाके लगाता है कि वह सुरक्षित है—
उसे अच्छा लगता है कि
वह आगे की सोचता है-
कि वह किसी का भी नहीं है
इसलिए वह और भी सुरक्षित है।
सच और झूठ-सही और ग़लत
अच्छे और बुरे, दोस्त और दुश्मन
पति-पत्नी, मां-बाप, भाई-बहन
वह किसी का नहीं है-इसलिए
वह बिल्कुल ही सुरक्षित है।
वह रो नहीं सकता-
उसके पास रोने का कोई कारण नहीं है,
वह हँस भी नहीं सकता-
उसे अपनी आवाज से भी डर लगता है,
नायक या खलनायक,
दोनों की सम्भावनाओं से
वह दूर भागता है-क्योंकि
वह आगे की सोचता है।
क्योंकि-वह आगे की सोचता है
इसलिए आज और हर रोज,
वह सशंकित रहता है,
इसलिए हर सुबह-गुपचुप
भोंक देता है वह–कटार
ठीक उसी पीठ में जो
उसके पास से गुजरती हो
बिल्कुल पास से
और यह हरकत उसे
उसके होने का
आभास कराती है कि
वह है-सिर्फ़ वही है।
फिर भी, हर रोज जब भी
मिलते हैं गले दो लोग
उसका गुस्सा, उबाल खाने लगता है
और तेज करने लगता है
वह अपनी कटार
बिना यह सोचे कि
आज या बीते कल की
पीठ में घोपे गये खंजर पर
हाथ उसी का था कि
कहीं उसकी अपनी आवाज
लौट न आये वापस
इसलिए–वह
अपना ही गला घोंटता है रोज
कि कल वह कहीं कुछ बोल न पड़े;
उसे बोलना न पड़े
अपना इकबालिया बयान
या यह सच कि
उसमें प्रेतात्मा है—-
इसी लिए वह अपना ही
गला घोंटता है रोज
क्योंकि
वह आगे की सोचता है,
वह सोचता है कि
वह आगे की सोचता है।