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उस दिन / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
यह कैसा शत्रु
सूर्य की सबसे रोबीली धूप की तरह
मँडरा रहा था मेरे तन पर
जैसे अब-तब सूख जाऊँगा मैं
कड़कड़ाने लगूँगा भूरी-भूरी मिट्टी की तरह
छीन लिया जायेगा मुझसे
किसी भी बीज को जन्म देने का हक
और ये किसान और ये हरियाली
दौड़ती हुई बकरियाँ
और ये गायें दुध को थन में बाँधे हुए
सब देख रही थीं मुर्झाते हुए मुझे
मैं बंद था रीठे की तरह कटधरे में
जिसे सभी थपथपा रहे थे
बंधन कोई नहीं खोल रहा था
सूखता जा रहा था मैं भीतर ही भीतर
और अस्त होता जा रहा था सूरज
पीठ छुपाये अपनी शर्म से ।