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उस पर्वत की कन्दराओं में गूँजकर / कालिदास
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ज्योतिर्लेखावलयि गलितं यस्य बर्हं, भवानी
पुत्रप्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति।
धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस्तं मयूर
पश्वादद्रिग्रहणगुरुभिर्गर्जितैर्नर्तयेथा:।।
पश्चात उस पर्वत की कन्दराओं में गूँजकर
फैलनेवाले अपने गर्जित शब्दों से कार्तिकेय
के उस मोर को नचाना जिसकी आँखों के
कोये शिव के चन्द्रमा की चाँदनी-से धवलित
हैं। उसके छोड़े हुए पैंच को, जिस पर
चमकती रेखाओं के चन्दक वने हैं, पार्वती
जी पुत्र-स्नेह के वशीभूत हो कमल पत्र की
जगह अपने कान में पहनती हैं।